नमस्कार दोस्तो स्वागत है आप सबका हमारी इस पोस्ट चाणक्य नीति पर यहां पर हमने लिखी है चाणक्य की ऐसी चार महान बाते जो आपके जीवन में बहुत काम आएंगी ।
दोस्तो पोस्ट को पूरा जरूर पढ़े और अपने दोस्तो के साथ शेयर जरुर करें ।
चाणक्य नीति की पहली महान बात -
कान्तावियोगः स्वजनापमानः
ऋणस्य शेषः कुरपस्य सेवा।
दरिद्रभावो विषमा सभा च
विनग्निनैतै प्रदहन्ति कायम्।।
श्लोक का अर्थ :
पत्नी का बिछुड़ाना, अपने बंधु-बांधवों से अपमानित होना, कर्ज़ चढ़े रहना, दुष्ट अथवा बुरे मालिक की सेवा में रहना, निर्धन बने रहना, दुष्ट लोगों और स्वार्थियों की सभा अथवा समाज में रहना, ये सब ऐसी बातें हैं, जो बिना अग्नि के शरीर को हर समय जलाती रहती है।
श्लोक का भावार्थ :
सज्जन लोग अपनी पत्नी के वियोग को सहन नहीं कर सकते। यदि उनके अपने भाई-बंधु उनका अपमान अथवा निरादर करते हैं तो वह उसे भी नहीं बुला सकते। जो व्यक्ति कर्जे से दबा है, उसे हर समय कर्ज न उतार पाने का दुख रहता है। दुष्ट राजा अथवा मालिक की सेवा में रहने वाला नौकर भी हर समय दुखी रहता है। निर्धनता तो ऐसा अभिशाप है, जिसे मनुष्य सोते और उठते-बैठते कभी नहीं भुला पाता। उसे अपने स्वजनों और समाज में बार-बार अपमानित होना पड़ता है।
अपमान का कष्ट मृत्यु के समान है। ये सब बातें ऐसी हैं, जिनसे बिना आग के ही व्यक्ति अंदर-ही-अंदर जलता रहता है। जीते-जी चिता का अनुभव करने की स्थिति है यह।
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चाणक्य निति की दूसरी महान बात -
यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्यां छन्दाअनुगमिनी।
विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि।।
श्लोक का अर्थ :
जिसका बेटा वश में रहता है, पत्नी पति की इच्छा के अनुरूप कार्य करती है और जो व्यक्ति धन के कारण पूरी तरह संतुष्ट है, उसके लिए पृथ्वी ही स्वर्ग के समान है।
श्लोक का भावार्थ :
प्रत्येक व्यक्ति संसार में सुखी रहना चाहता है, यही तो स्वर्ग है। स्वर्ग में भी सभी प्रकार के सुखों को उपभोग करने की कल्पना की गई है। इस बारे में चाणक्य कहते हैं कि जिसका पुत्र वश में है, स्त्री जिसकी इच्छा के अनुसार कार्य करती है, जो अपने कमाए धन से संतुष्ट है, जिसे लोभ-लालच और अधिक कमाने की इच्छा नहीं है, ऐसे मनुष्य के लिए किसी अन्य प्रकार के स्वर्ग की कल्पना करना व्यर्थ है।
स्वर्ग तो वह जाना चाहेगा जो यहां दुखी हो।
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चाणक्य नीति की तीसरी महान बात-
अधित्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः।
धर्मोपदेशविख्यातं कार्याकार्यं शुभाशुभम्।।
अर्थ:
मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि कुछ भी करने से पूर्व उसे इस बात का ज्ञान हो कि वह कार्य करने योग्य है या नहीं, उसका परिणाम क्या होगा? पुण्य कार्य और पाप कर्म क्या है? श्रेष्ठ मनुष्य ही वेद आदि धर्मशास्त्रों को पढ़कर भले-बुरे का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
यहां यह बात जान लेना भी आवश्यक है कि धर्म और अधर्म क्या है? इसके निर्णय में, प्रथम दृष्टि में धर्म की व्याख्या के अनुसार - किसी के प्राण लेना अपराध है और अधर्म भी, परंतु लोकाचार और नीतिशास्त्र के अनुसार विशेष परिस्थितियों में ऐसा किया जाना धर्म के विरुद्ध नहीं माना जाता, पापी का वध और अपराधी को दंड देना इसी श्रेणी में आते हैं।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा दी,
उसे इसी विशेष संदर्भ में धर्म कहा जाता है।
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चाणक्य निति की चोथी महान बात-
उपसर्गेन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे।
असाधुजनसंपर्के यः पलायति स जीवति।।
श्लोक का अर्थ:
प्राकृतिक आपत्तियां- जैसे अधिक वर्षा होना और सूखा पड़ना अथवा दंगे-फसाद आदि होने पर, महामारी के रूप में रोग फैलने, शत्रु के आक्रमण करने पर, भयंकर अकाल पड़ने पर और नीच लोगों का साथ होने पर जो व्यक्ति सब कुछ छोड़-छाड़कर भाग जाता है, वह मौत के मुंह में जाने से बच जाता है।
श्लोक का भावार्थ:
भावार्थ यह है कि जहां दंगे-फसाद हो, उस जगह से व्यक्ति को दूर रहना चाहिए। यदि किसी शत्रु ने हमला कर दिया हो या फिर अकाल पड़ गया हो और दुष्ट लोग अधिक संपर्क में आ रहे हो, तो व्यक्ति को वह स्थान छोड़ देना चाहिए। जो ऐसा नहीं करता, वह मृत्यु का ग्रास बन जाता है।
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