चाणक्य नीति

चाणक्य नीति



विषादप्यमतं ग्राह्मममेध्यादपि काञ्चनम्।

नीचादप्युत्त्मा विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि।।


श्लोक का अर्थ :

विष में भी यदि अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। अपवित्र और अशुद्ध वस्तुओं में भी यदि सोना अथवा मूल्यवान वस्तु पड़ी हो तो वह भी उठा लेने के योग्य होती है। यदि नीच मनुष्य के पास कोई अच्छी विद्या, कला अथवा गुण हैं तो उसे सीखने में कोई हानि नहीं। इसी प्रकार दुष्ट कुल में उत्पन्न अच्छे गुणों से युक्त स्त्री रूपी रत्न को भी ग्रहण कर लेना चाहिए।


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वरमेको गुणी पुत्रो निर्ग्रणैश्च शतैरपि।

एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्रशः।।


श्लोक का अर्थ :

सैकड़ों गुणरहित और मूर्ख पुत्रों के बजाय एक गुणवान और एक विद्वान पुत्र का होना अच्छा है, क्योंकि हजारों तारों की अपेक्षा एक चंद्रमा से ही रात्रि प्रकाशित होती है। 


श्लोक का भावार्थ :

सैकड़ों मुर्ख पुत्रों की अपेक्षा एक विद्वान और गुणों से युक्त पुत्र से ही पूरे परिवार का कल्याण होता है। रात्रि के समय जिस प्रकार आकाश में हजारों तारागण दिखाई देते हैं, परंतु उनसे रात्रि का अंधकार दूर होने में सहायता नहीं मिलती। उसे तो चंद्रमा ही दूर कर पाता है।


आचार्य की दृष्टि से संख्या नहीं गुण महत्वपूर्ण है।


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एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः।

चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं पञ्चभिर्बहुभिर्र्णः।।


श्लोक का अर्थ :

तप अथवा किसी प्रकार की साधना का कार्य एक अकेला व्यक्ति ही अच्छा करता है, यदि दो छात्र मिलकर पढ़े तो अध्ययन अच्छा होता है और गाने के लिए यदि तीन व्यक्ति मिलकर अभ्यास करते हैं, तो अच्छा रहता है। 

इसी प्रकार यदि यात्रा आदि पर जाना हो तो कम-से-कम चार व्यक्तियों को जाना चाहिए। खेती आदि कार्य ठीक प्रकार से चलाने के लिए पांच व्यक्तियों की आवश्यकता होती है, जबकि युद्ध में यह संख्या जितनी हो उतना अच्छा है।


श्लोक का भावार्थ :

चाणक्य कहते हैं कि तप अथवा साधना व्यक्ति को अकेले ही करनी चाहिए, एक से अधिक होंगे तो उसमें विघ्न पड़ेगा। अध्ययन दो व्यक्तियों के बीच ठीक रहता है, क्योंकि दोनों एक-दूसरे को कोई बात समझा सकते हैं। गाने के अभ्यास के लिए तीन लोगों का होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि उनमें से एक जब अभ्यास करता है, तो दोनों सुनने वाले अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कर सकते हैं। कहीं यात्रा पर जाने के समय चार व्यक्ति और खेती आदि के कार्य के लिए पांच व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। युद्ध ऐसा कार्य है जिसमें जितने भी अधिक लोग हों, उनसे सहायता मिलती है।


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लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः।

तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेत् तु लालयेत्।।


श्लोक का अर्थ :

लाड़-दुलार से पुत्रों में बहुत से दोष उत्पन्न हो जाते हैं। उनकी ताड़ना करने से अर्थात दंड देने से उनमें गुणों का विकास होता है, इसलिए पुत्रों और शिष्यों को अधिक लाड़- दुलार नहीं करना चाहिए, उनकी ताड़ना करते रहनी चाहिए।        


श्लोक का भावार्थ :

यह ठीक है कि बच्चों को लाड-प्यार करना चाहिए, किंतु अधिक लाड़-प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष भी उत्पन्न हो सकते हैं। माता-पिता का ध्यान प्रेमवश उन दोषों की ओर नहीं जाता। इसलिए बच्चे यदि कोई गलत काम करते हैं तो उन्हें पहले ही समझा-बुझाकर उस गलत काम से दूर रखने का प्रयत्न करना चाहिए। बच्चे के द्वारा गलत काम करने पर, उन्हें नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं। बच्चों को डांटना भी चाहिए। किए गए अपराध के लिए दंडित भी करना चाहिए ताकि उसे सही-गलत की समझ आए।


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दर्शनध्यानसंस्पशैर्मत्सी कुर्मी च पक्षिणी।

शिशुं पालयते नित्यं तथा सज्जनसंगतिः।।


श्लोक का अर्थ:

जैसे मछली अपने बच्चों को देखकर, मादा कछुआ ध्यान (देखभाल) से और मादा पक्षी स्पर्श से अपने बच्चों का लालन-पालन करते हैं, उसी प्रकार सज्जनों की संगति भी दर्शन, ध्यान और स्पर्श द्वारा संसर्ग में आए व्यक्ति का पालन करती है।


श्लोक का भावार्थ:

आचार्य ने इस श्लोक द्वारा सज्जनों के अत्यंत सुक्ष्म प्रभाव की ओर संकेत किया है। मान्यता है कि मछली अपनी दृष्टि से, मादा कछुआ ध्यान से तथा पक्षी अपने स्पर्श से अपनी संतान का लालन-पालन करते हैं। सज्जन भी दर्शन, ध्यान और स्पर्श से अपने आश्रितों को सुरक्षा प्रदान करते हैं और विकास में सहयोगी होते हैं। सज्जनों के दर्शन से आत्मबल में वृद्धि होती है और संकल्प दृढ़ होता है। यदि उनका ध्यान किया जाए और यदि उनके चरणों का स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाए, तो सफलता, उन्नति और विकास सहज हो जाता है।


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